Blog Archive

Wednesday, 11 January 2017

Mathematics By Junaid Sir 9708545609 / गणित में आनंद

जुनैद सर :- चाहे हम इसे पसन्‍द करें या नहीं पर यह प्रतीत होता है कि गणित हमारे जीवन के हर पक्ष में व्याप्त है। चाहे किसान हो या कोई तकनीकी व्यक्ति, गणित के साथ एक सहज नाता और कम से कम उस स्तर की योग्यता जिस स्तर पर व्यक्ति उसका उपयोग करता है, एक समतावादी समाज के लिए आवश्यक है। कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि भले ही स्कूल में सीखे गए गणित की विषयवस्तु भूल जाएँ फिर भी विद्यार्थी गणितीय तर्कप्रक्रिया के अपने अनुभव के द्वारा स्पष्ट और तार्किक ढंग से सोचने (जीवन के लिए अनिवार्य कौशल) की क्षमता को बनाए रख पाएँगे। यहाँ अन्तर्निहित मान्यता यह है कि गणित सीखना न सिर्फ हमें अपनी रोज़मर्रा की जिन्‍दगी में मदद करेगा बल्कि हमारे जीवन की गुणवत्ता भी इससे बेहतर होगी। कैसी विडम्‍बना है कि अधिकांश लोगों के लिए गणित के साथ उनका अनुभव इस मान्यता के बिलकुल विपरीत रहा है। दुनिया भर में गणित के शिक्षा की दशा के बारे में विलाप करते हुए काफी कुछ लिखा जा चुका है, और ‘मैथफोबिया’ (गणित का भय) शब्द सामान्य बातचीत का हिस्सा बन चुका है। बच्चों के स्कूल छोड़ देने के पीछे एक बड़ा कारण गणित को न सम्हाल पाना होता है। यह एक जाना-माना तथ्य प्रतीत होता है कि कई विद्यार्थी गणित से डरते हैं और भय खाते हैं। खेद की बात यह है कि यह भावना बड़ी उम्र तक बनी रहती है।
गणित की शिक्षा में सुधार करने के लिए कई प्रयास किए गए हैं। इस हेतु बहुत सारा धन भी लगाया गया है। दुर्भाग्यवश, सुधारों की मंशा संदिग्ध रही है और मेरी राय में यह समस्या का एक हिस्सा है। विकसित राष्ट्र इस डर से अपने नागरिकों की गणितीय योग्यता को और बेहतर बनाना चाहते हैं कि विरोधी राष्ट्रों के नागरिक उनसे बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं। उदीयमान राष्ट्र अपनी गणितीय शिक्षा को इसलिए बेहतर बनाना चाहते हैं ताकि वे एक ‘ज्ञान-आधारित समाज’ की रचना कर सकें। बाज़ार की दुनिया में ज्ञानवान व्यक्तियों को बड़ी सम्‍पदा माना जाता है। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि इन प्रेरणाओं पर आधारित सुधारों ने गणितीय शिक्षा पर लम्‍बी अवधि में कोई खास प्रभाव नहीं डाला है (हालाँकि बीच में, स्पूतनिक भय के चलते अमरीका में थोड़े समय के लिए ‘बुनियादी विज्ञान का स्वर्णिम युग’ आया था)।

यदि हमें इन दोनों समस्याओं, यानि कमजोर गणितीय योग्यता और मैथफोबिया (गणित से भय), को सुलझाने के सम्‍बन्‍ध में कोई प्रगति करना है, तो पहले हमें कई प्रश्नों की तह में जाना होगा। गणित की प्रकृति क्या है और हमारे कुछ खास पूर्वाग्रह पाठ्यक्रम की रूपरेखा को किस प्रकार प्रभावित करते हैं? गणित के साथ विद्यार्थियों और शिक्षकों का नाता किस तरह का है? गणित के बारे में विद्यार्थियों और शिक्षकों की भ्रान्‍तियाँ या मान्यताएँ क्या हैं? और सम्भवतः सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है, वे कौन-से कारक हैं जो मनुष्यों को सीखने के लिए प्रेरित करते हैं?
इस लेख में मैं इस तरह की विवेचना प्रारम्भ करने की आशा करता हूँ। उसके लिए पहले मैं लोगों द्वारा गणित को देखे जाने और अनुभव किए जाने के तमाम तरीकों का वर्णन करूँगा। ये दृष्टिकोण अलग-थलग ढंग से लागू किए जाने पर पाठ्यक्रम को कैसे प्रभावित कर सकते हैं, इसे भी सामने लाऊँगा। इसके बाद यह देखने के लिए कि क्या हम वाकई गणित का आनन्‍द लेने की ऐसी संस्कृति रच सकते हैं जो सिर्फ कुछ सम्भ्रान्‍त लोगों के लिए न होकर सर्वसमाज के लिए हो, मैं पाठ्यक्रम रचना तथा अध्यापन के तरीकों पर नजर डालूँगा।
नेत्रहीन लोग और गणित
हम सभी, नेत्रहीन लोगों और हाथी की प्रसिद्ध जातक कथा से परिचित हैं। प्रत्येक व्यक्ति हाथी के अलग-अलग अंग को छूता है, और फिर वे हाथी की व्याख्या दीवार से लेकर रस्सी तक कई भिन्न रूपों में करते हैं। ठीक इसी तरह गणित भी आंशिक दृष्टियों से पीड़ित है। शायद गणित का रहस्य, उसकी गहराई और सम्पन्नता इस तथ्य से उजागर होती है कि उसे इतने सारे अलग ढंगों से देखा जा सकता है। आइए इनमें से कुछ दृष्टियों पर नजर डालें और देखें कि कैसे वे पाठ्यक्रम के स्वरूप और शिक्षण को प्रभावित करती हैं।
लेखा-विद्या के रूप में गणित
अधिकांश लोगों के लिए गणित हिसाब-किताब का समानार्थी शब्द है। शायद यह कहना अनुचित नहीं होगा कि अधिकांश लोग  कीमतों की तुलना करने में, यह सुनिश्चित करने में कि कहीं उन्हें बाकी रेज़गारी वापस दिए जाने के मामले में धोखा तो नहीं दिया जा रहा है, और शायद ब्याज दरों, रियायतों और छूटों की गणना करने में गणित का इस्तेमाल करते है। कुछ लोग क्षेत्रफल और आयतन की गणना में भी कर सकते हैं। कुछ ज्यादा सीखे हुए लोग इसका इस्तेमाल बहीखाते में कर सकते हैं। यह भी सही है कि अंकगणित में कई खोजें सम्‍भवत: ज़मीन के दस्तावेज और व्यापार का हिसाब-किताब रखने की जरूरत से हुई हैं। इसके जो उदाहरण दिमाग में आते हैं वे हैं प्राथमिक त्रिकोणमिति और मापनकला जो कि नील घाटी में खेती की जमीनों की गणना करने की जरूरत से प्रेरित थी। सम्भवतः हिन्दू-अरबी संख्या व्यवस्था की खोज की प्रेरणा बहीखातों में इस्तेमाल करने की जरूरत की बजाय खगोलशास्त्र में बड़ी-बड़ी गणनाएँ करने की जरूरत से मिली। पर निश्चित ही, इस खोज का, जिसे ‘मनुष्यों के महानतम बौद्धिक कमालों’ में से एक माना जाता है, वाणिज्य के क्षेत्र में बहुत गहरा असर रहा है। अधिकांश लोगों के लिए गणित का मतलब है अंकगणित और संख्याओं का हेरफेर करना।
यदि यह किसी का गणित के साथ एकमात्र अनुभव है तो वह पाठ्यक्रम की रचना व गणित का शिक्षण इस तरह करेगा जैसे कि वह बस सवालों को हल करने की विधियों का विज्ञान भर हो जिससे यांत्रिक गणनाएँ की जाती हैं। इस वजह से यह काम उसके तथा विद्यार्थियों, दोनों के लिए अरुचिकर हो जाएगा जिसके चलते वह कई विद्यार्थियों को खो देगा। सोफिया कोवालेव्सकाया इसे अद्भुत ढंग से पेश करती हैं: “कई लोग, जिन्हें गणित के बारे में अधिक खोजने का मौका कभी नहीं मिला, इसे बस अंकगणित मान लेते हैं, और इसे शुष्क और नीरस विज्ञान के रूप में देखते हैं। जबकि, वास्तविकता में, यह ऐसा विज्ञान है जो सबसे ज्यादा कल्पनाशीलता की मांग करता है।”
सवाल हल करने वाली मानसिक कसरत के रूप में गणित
गणित की खास विशेषताओं में से एक है सवाल हल करना। ऐसे कई लोग जो छोटी उम्र में सवाल हल करने के रोमांच को खोज लेते हैं वे बड़े होने पर व्यावसायिक गणितज्ञ बन जाते हैं। पर अगर गणित के इस पक्ष को विकृत कर दिया जाता है और उसे गलत दृष्टिकोण से देखा जाने लगता है तो यह गणित से भयभीत होने और उसके प्रति घृणा का भाव पैदा करने का स्रोत बन जाता है। चूँकि सवालों को हल करने की प्रतिभा बहुत छोटी उम्र में सामने आ जाती है अतः इस अकेली क्षमता के आधार पर बच्चों पर अक्सर ‘असाधारण’ और ‘मन्दबुद्धि’ का ठप्पा लगा दिया जाता है। जब एक शिक्षा व्यवस्था बच्चों के आत्म-मूल्य को उनकी सवाल हल करने की क्षमता से जोड़कर देखती है तो यह उन बच्चों का भी बहुत नुकसान करती है जो सवाल हल करने में दक्ष होते हैं और उनका भी जो इसमें दक्ष नहीं होते। वे बच्चे जिन्हें सवाल हल करना कठिन मालूम पड़ता है, और जिनपर ‘मूर्ख’ का ठप्पा लगा दिया जाता है (समाज के द्वारा या खुद के द्वारा) उनके मन में सभी तरह के गणित के प्रति भय और घृणा का भाव विकसित हो जाता है। उनकी अपनी यह छवि अक्सर उनके आत्मगौरव से जुड़कर उसे क्षति पहुँचाती है जिनसे उनमें असुरक्षा और शर्मिंदगी की भावनाएँ पनपती जाती हैं। हम सभी ऐसे कई एकदम अजनबी लोगों से मिलते हैं जिन्हें यह बात स्वीकारना बहुत जरूरी लगता है कि वे गणित में कितने ज्यादा खराब हैं। दूसरी तरफ, ऐसे लोगों के साथ, जो सवालों को हल करने में तथा गणित में दक्ष होते हैं और जिन पर अपने आप “बुद्धिमान” का ठप्पा लग जाता है, हमेशा यह खतरा रहता है कि वे हीन सामाजिक कौशल वाले एक आयामी व्यक्ति बनकर रह जाएँ। मैं आपको यह आसान सा अभ्यास देता हूँ कि आप अपने पसन्दीदा गणितज्ञ के बारे में सोचकर इस बात का स्पष्ट उदाहरण पा सकते हैं!
इसमें कोई सन्देह नहीं है कि गणितीय सिद्धान्त का बड़ा हिस्सा कठिन सवालों को हल करने की लालसा से प्रेरित होता है। फेर्मा का अन्तिम प्रमेय इसका प्रसिद्ध उदाहरण है। हालाँकि, गणित के सभी सवाल इसी ढंग के नहीं होते। कुछ सवाल जरूर बड़े गम्भीर होते हैं, और हिमनद की ऊपर दिखने वाली नोंक की तरह अपने नीचे छिपे गणित के गहरे पक्षों को उजागर करते हैं। कई सवाल तो बस दिमागी कसरत होते हैं जो अक्सर उन्हें उलटी तरफ से, अर्थात समाधानों की ओर से, हल करने का अभ्‍यास  होते हैं, जिसमें हल करने के लिए किसी बचकानी तरकीब की जरूरत पड़ती है।
ऐसे ही सवाल हमारी अधिकांश प्रतियोगी परीक्षाओं का मुख्य अंग होते हैं और इनका इस्तेमाल अनेक आवेदकों को कचरे की तरह अलग कर देने के लिए किया जाता है। कोई भी व्यवस्था जो शिक्षा और नौकरियों जैसे संसाधनों के अवसर बाँटने के लिए मानदण्ड के रूप में इस कसरती क्षमता का उपयोग करती हो, वह निश्चित ही एक असन्तुलित बेढंगा समाज बनाएगी। इसके प्रभाव अभी ही हमारे उच्च शिक्षा के संस्थानों में देखे जा रहे हैं। वे विद्यार्थी जिन्हें सवाल हल करने की मशीनी ज़द्दोज़हद से होकर गुजरना पड़ता है, चुक जाते हैं और उनके भीतर कुछ नया सीखने की चाहत नहीं रह जाती। ऐसे विद्यार्थियों का गणित के प्रति दृष्टिकोण बहुत संकुचित होता है और उनमें से बहुत थोड़े ही कार्यक्षेत्र की तरह से गणित के शोध और शिक्षण को चुनेंगे। मैंने वरिष्ठ प्राध्यापकों और प्रशासकों को इस तथ्य के बारे में अफ़सोस करते सुना है कि भारत में नए खुले कई प्रतिष्ठित संस्थानों में गणित पढाने हेतु सक्षम लोग ढूँढना बहुत मुश्किल बात है। उन कई हजार विद्यार्थियों के भाग्य के बारे में ज़रा सोचिए जो कई सालों की तैयारी के बाद भी तथाकथित स्तरीय शिक्षा पाने की स्थिति तक नहीं पहुँच सके। टूटे मन और घायल आत्मविश्वास के साथ किस तरह की पढ़ाई हो सकती है? इसके अलावा हमारे समाज ने बुद्धिमत्ता और गणितीय क्षमता के बीच जो तादात्म्य बना दिया है उसके चलते कला के विषयों को आगे पढ़ने की इच्छा रखने वालों के लिए शिक्षा की दशा निराशाजनक हो गई है क्योंकि विज्ञान की शिक्षा के लिए असन्तुलित रूप से अधिक धन उपलब्ध कराया जा रहा है। कई ऐसे छात्र भी, जिनकी विज्ञान के विषयों में कोई खास रुचि नहीं है और जो शायद दूसरे क्षेत्रों में बहुत प्रतिभावान हैं, विज्ञान की पढ़ाई ही कर रहे हैं।
ब्रह्माण्ड की भाषा और आधुनिक समाज के एक उपयोगी औजार के रूप में गणित:
गैलिलियो के बाद गणित को ब्रह्माड की भाषा के रूप में देखा जाने लगा। जो लोग ब्रह्माड के रहस्यों को सुलझाना चाहते हैं वे ब्रह्माड को समझने के लिए गणित को छठी इन्द्रिय के रूप में देखते हैं। हम भी भौतिकशास्त्री यूजीन विग्नर, जिन्होंने 1959 में एक व्याख्यान दिया था जिसका शीर्षक था ‘प्राकृतिक विज्ञानों में गणित की अतिशय प्रभावशीलता’, के साथ इस पर चमत्कृत होते हैं। विग्नर अपने व्याख्यान का अन्त यह कहकर करते हैं, “भौतिक शास्त्र के नियमों के सूत्रीकरण के लिए गणित की भाषा की उपयुक्तता का चमत्कार एक अद्भुत पुरस्कार है जिसे हम न तो समझते हैं और न ही हम इसके पात्र हैं। हमें इसके लिए आभारी होना चाहिए और आशा करना चाहिए कि वह भविष्य के शोधों के लिए भी मान्य रहेगी और इसका विस्तार शिक्षा की व्यापक शाखाओं तक हो जाएगा, चाहे वह अच्छा हो या बुरा, हमें आनन्दित करे या सम्भवतः हमें और भी बेबूझ लगे।” ऐसे अनेक लोग जो विज्ञान के ज्यादा सैद्धान्तिक पक्षों का अध्ययन करते हैं, गणित के इसी ‘चमत्कारी’ पक्ष की ही सबसे ज्यादा सराहना करते हैं।
क्रियाकलापों के मॉडल बनाने की अपनी असाधारण क्षमता के चलते गणित का हमारी जिन्दगियों के सभी पहलुओं पर तथा जीवविज्ञान से लेकर अर्थशास्त्र तक अध्ययन के कई क्षेत्रों पर बहुत गहरा असर हुआ है। मॉडल बनाने की इस क्षमता ने गणित को व्यापारियों से लेकर इंजीनियरों तक तमाम तरह के लोगों के लिए एक उपयोगी औजार भी बना दिया है। हममें से अधिकांश लोग आजकल कम्प्यूटरों का उपयोग करते हैं पर हमें इस बारे में कुछ भी पता नहीं होता कि कम्प्यूटर कैसे काम करते हैं, और इसी प्रकार व्यवसायी लोग गणित का औजार की तरह उपयोग करते हैं और उन्हें इसका कोई अनुमान नहीं होता कि यह औजार क्यों काम कर जाता है। गणित के बारे में ऐसे दृष्टिकोण, जो यह माँग करता हो कि उसकी उपयोगिता का हमेशा प्रदर्शन किया जाए, का भी गणित के पाठ्यक्रमों और उसके शिक्षण पर विपरीत असर पड़ेगा। मुश्किल यह है, कि बहुत थोड़ा स्कूली गणित ही ऐसा होता है जो कि छात्रों को वास्तविक अर्थों में प्रयुक्त होता हुआ दिखाया जा सके। ज्यादातर तो इसके उदाहरण अवास्तविक और अर्थहीन होते हैं। इसके अलावा, ऐसा रवैया भी, जो यह कहता हो कि “मैं कोई चीज तभी सीखूँगा जब वह उपयोगी हो”, ‘सही अर्थों में सीखने’ के रास्ते में आ जाता है। गणित को लेकर इस तरह का उपयोगवादी रवैया जिसके लाभ बाद में मिलना हों, और वर्तमान में यांत्रिक और अर्थहीन गणनाएँ करते जाना हों, विद्यार्थियों को कतई प्रेरित नहीं कर सकता। इससे गणित उबाऊ हो जाता है और उसका चंचल और आनन्ददायी पक्ष खो जाता है। जैसा कि जूलियन रिचर्ड ने कहा है, “एक औसत विद्यार्थी भावनात्मक और बौद्धिक संतोष अभी चाहता है, न कि पाँच या दस साल के समय में जबकि वह वयस्क हो चुका होगा!”
सत्य और सुन्दरता की तरह गणित:
अब हम गणित के गूढ़ विवरणों में प्रवेश करते हैं। सभी शुद्ध गणितज्ञ, जो वाकई में निष्णात हैं, यही कहेंगे कि वे गणित इसलिए करते हैं क्योंकि गणित बहुत सुन्दर है। यदि वे प्लेटोवादी होंगे तो वे यह भी कह सकते हैं कि वे ‘गणितीय सत्य’ की खोज में हैं, कुछ ऐसा जो खोजा जाना हो न कि आविष्कृत किया जाना। सभी शुद्ध गणितज्ञों के प्रवक्ता जी.एच. हार्डी से बेहतर और कौन इस भाव को व्यक्त कर सकेगा? “एक गणितज्ञ, किसी चित्रकार या फिर कवि की भाँति ही संरचनाएँ बनाता है। यदि उसकी संरचनाएँ चित्रकारों और कवियों की संरचनाओं से ज्यादा स्थायी होती हैं तो इसलिए क्योंकि उसकी संरचनाएँ विचारों से निर्मित होती हैं।” वे आगे कहते हैं, “गणितज्ञ की संरचनाएँ, चित्रकार या फिर कवि की संरचनाओं की तरह ही खूबसूरत होना चाहिए; उसके विचार, रंगों या शब्दों की ही भाँति सुसंगत ढंग से समाहित होने चाहिए। सुन्दरता पहला परीक्षण है: कुरूप गणित के लिए दुनिया में कोई स्थायी जगह नहीं है।”
पर मेरी राय में, गणित में आगे बढ़ने के लिए सबसे बड़ी प्रेरणा भावनात्मक स्तर पर अनुभव की जाती है। सभी गणितज्ञ, चाहे गणित की प्रकृति के प्रति उनकी दृष्टि जो भी हो, इस बात पर सहमत होंगे कि गणित की रचना की प्रक्रिया में उन्हें ‘पूरे मस्तिष्क में प्रकाश के फैलने’ जैसा अनुभव होता है। फील्ड्स मैडल (गणित के क्षेत्र में पाया जा सकने वाला उच्चतम पुरस्कार) विजेता एलेन कॉन्स इस अनुभूति को इस तरह समझाते हैं: “पर जैसे ही प्रकाश होता है, वह हमारी सम्वेदना पर इस तरह से छा जाता है कि तब निष्क्रिय या उदासीन रह पाना असम्भव हो जाता है। उन बिरले मौकों पर जब मैंने वास्तव में इसे अनुभव किया है, मैं अपनी आँखों में आँसू आने से नहीं रोक सका।”
कहा जाता है कि गणित किसी सृजनात्मक कला विधा के सदृश्य है और इस तथ्य को केवल वे लोग ही सच में समझते हैं जिन्होंने गणित को खोजने का मादक आनन्द लिया है। यह बात ऐसे अधिकांश लोगों को (मुझे भी) सबसे ज्यादा आकर्षित करती है, जो गणित का अध्ययन सिर्फ उसके आनन्द के लिए करते हैं न कि उसके उपयोगों या दूसरे पहलुओं के लिए जैसा कि ऊपर वर्णित किया गया है। समय-समय पर गणितज्ञों ने इस बात का रोना रोया है कि चूँकि शिक्षक और छात्र गणित के इस स्वभाव को सही में समझते नहीं हैं, इसीलिए उसका पाठ्यक्रम और शिक्षण विकृत हो गया है।
पर, उस दृष्टिकोण की भी सीमाएँ हैं जो यह कहता है कि सभी गणितीय अनुभव कला और संगीत के अनुभवों के समान होते हैं। कला और संगीत की सुन्दरता अधिकांश मनुष्यों को अपेक्षाकृत आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं, पर गणित की सुन्दरता देखने के लिए उससे एक अनूठा सम्बन्ध होना चाहिए और पर्याप्त प्रशिक्षण होना चाहिए। स्कूली गणित के अधिकांश हिस्से का ढाँचा अक्सर इतना समृद्ध नहीं होता कि वह अपनी सुन्दरता दिखा सके; बल्कि स्कूल के वर्षों में तो सवालों को हल करने की प्रक्रिया ही बच्चों को गणित की तरफ आकृष्ट करती है। यदि गणित कला का ही एक रूप है तो फिर सभी बच्चों को गणित सीखने के लिए बाध्य क्यों करना चाहिए? यदि हम गणित के प्रति शुरुआती प्रतिक्रियाओं के आधार पर उसे वैकल्पिक बना देते हैं, तो क्या हम बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निभा रहे हैं? चूँकि सौन्दर्य बोध रुचि की बात है तो क्या हमें शिक्षकों को सिर्फ उन्हीं की पसन्द के अनुसार पाठ्यक्रम रचने देना चाहिए? निश्चित ही इससे उनके सारे के सारे छात्रों की रुचियाँ भी सन्तुष्ट नहीं होंगी, उनके द्वारा गणित का उपयोग दूसरे विषय सीखने की बुनियाद के रूप में करने या फिर आजीविका अर्जन के लिए करने की बात तो छोड़ ही दें।
और फिर यह सवाल भी है कि आखिर समाज क्यों गणितीय गतिविधि की मदद करे। अधिकांश कलाकारों को अपने कला के काम के लिए संरक्षकों या खरीदारों की जरूरत होती है। गणितज्ञ आजीविका के लिए अपने प्रमेय नहीं बेचते। ईमानदारी की बात यह है कि नीति-निर्धारकों के गणित को एक उपयोगी औजार की तरह देखने के कारण ही इस क्षेत्र में मौजूद अधिकांश लोग अपनी आजीविका कमाने में समर्थ होते हैं। वे या तो गणित पढ़ाते हैं या गणित ‘करते’ हैं, जो ऐसा विषय है जिसे आजीविका के लिए उपयोगी माना जाता है। अपने ही आनन्‍द के लिए गणित करने वाले थोड़े से लोगों को ही आर्थिक सहारा दिया जाता है।
सभी के लिए गणित?
यदि हम इस बात पर ज़ोर दें कि गणित सभी विद्यार्थियों के लिए केन्द्रीय पाठ्यक्रम में शामिल रहे तो हमें इसे भी एक मौलिक अधिकार बना देना चाहिए कि सभी बच्चे गणित सीखने में मजा लें। कर्नाटक शैली के एक प्रसिद्ध संगीतकार ने मुझसे एक बार कहा था कि कुछ वर्ष पूर्व कर्नाटक संगीत पुनरोत्थान के एक बड़े दौर से गुजरा है। इसका श्रेय कई युवा संगीतकारों को जाता है जिन्होंने रसिकों का एक बड़ा आधार तैयार किया और उसे बढ़ाया। इन युवा लोगों ने चेन्नई और पूरे दक्षिण भारत के सैकड़ों अन्य छोटे कस्बों और गाँवों में सभा संस्कृति को फिर से जीवित किया। युवा और बुजुर्ग, शौकीन और प्रवीण, सभी तरह के संगीतकारों के लिए अब सराहना करने वाले श्रोता मौजूद हैं, और वे एक अच्छी आजीविका हासिल कर सकते हैं।
क्या हम भी गणित का आनन्‍द लेने की संस्कृति बना सकते हैं? निश्चित ही अब तक चर्चा की गई समस्याओं का यही एक समग्र समाधान है। यह तभी हो सकता है जब इससे जुड़े सभी लोग वाकई में गणित करने, उसके उपयोग और उसे सीखने के आनन्द और रोमांच के भाव को महसूस कर सकें। मौजूदा स्थिति में तो यह एक आदर्शवादी, अव्यावहारिक स्वप्न प्रतीत होता है - नीरस पाठ्यक्रम, अपर्याप्त और खराब आधारभूत सुविधाएँ, अधूरे तैयार शिक्षक (पॉल लॉकहार्ट का कहना है: “गणितज्ञ बच्चों को पढ़ाने के प्रति उत्सुक नहीं हैं और शिक्षक गणित करने में उत्सुक नहीं हैं”), और भय और घबराहट की संस्कृति का व्याप्त होना, अभी यही स्थिति है जहाँ तक गणित का सवाल है। पर सभी क्रान्तियों की तरह बदलाव की शुरुआत व्यक्तिगत/आधारभूत तथा व्यवस्थागत, दोनों ही स्‍तरों पर होना चाहिए।
व्यवस्थागत स्‍तर पर हमें गणितीय क्षमता को बुद्धिमत्ता से अलग करके देखना होगा। हमें हर बच्चे की यह खोजने में मदद करना होगा कि उसे वाकई में क्या अच्छा लगता है, पर साथ ही उन्हें उन चीजों को पसन्द करना भी सिखाना होगा जो वे कर रहे हों। हमें शिक्षा और नौकरियों जैसे संसाधनों तक पहुँच के लिए सवाल हल करने के दकियानूसी कौशलों का मुख्य मानदण्ड के रूप में उपयोग करना बन्द करना होगा। हमें अपने युवाओं की योग्यताओं और कौशलों का आकलन करने के लिए एक ज्यादा व्यापक आधार विकसित करने की जल्द से जल्द जरूरत है। मैं मानकों को कमज़ोर करने का सुझाव नहीं दे रहा हूँ। मैं मूल्यांकन के एक व्यापक आधार वाली व्यवस्था की माँग कर रहा हूँ जो मानवीय बुद्धिमत्ता के विविध पहलुओं को, जवाबदेह होने की क्षमता को और संवेदनशील तथा जिम्मेदार मनुष्य होने के दुर्लभ गुण को ध्यान में रखे। इस क्षेत्र में होने वाला क्रान्तिकारी बदलाव गणित के प्रति होने वाली सांस्कृतिक घबराहट को जड़ से उखाड़ देगा।
पाठ्यक्रम के स्तर पर, हमें गणित शिक्षा के लिए अपने लक्ष्यों के बारे में स्पष्ट होने की जरूरत है। जो न्यूनतम बात हम चाहेंगे वह है कि सभी बच्चे गणना करने में समर्थ हों, उनके पास आँकड़े एकत्रित करने और प्रस्तुतिकरण की पर्याप्त जरूरी समझ हो ताकि वे झूठे प्रचार के बहकावे में न आ पाएँ। उनके पास यह तार्किक क्षमता हो कि वे झूठे तर्कों की पहचान कर सकें। कुछ लोगों के लिए लक्ष्य होगा गणित का औजार की तरह उपयोग करने की योग्यता; उससे भी कम लोगों की संख्या के लिए लक्ष्य होगा नया गणित रचना (सृजनशील गणितज्ञ बिरले ही किसी व्यवस्था का योजनाबद्ध नतीजा होते हैं – वे तो किसी भी व्यवस्था के बावजूद गणित की तरफ मुड़ते हैं क्योंकि वे गणित के अलावा कुछ और कर ही नहीं सकते!)।
एनसीएफ 2005 में रेखांकित गणितीय पाठ्यक्रम रूपरेखा एक बहुत अच्छा दस्तावेज है और उसमें काफी गहराई से बहुत स्पष्ट दिशा-निर्देश दिए गए हैं। लेकिन, इस समय हमें तुरन्त ही गणितज्ञों, शिक्षकों और शैक्षिक मनोवैज्ञानिकों के विचार-समूह की जरूरत है जो इन उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए शिक्षण-सामग्री तैयार कर सकें। हमें सृजनात्मक तरीकों से गणनाएँ करना सिखाना होगा ताकि इन कौशलों को निखारा जा सके और आगे बढ़ाया जा सके। चूँकि इनका इस्तेमाल रोजमर्रा की व्यावहारिक परिस्थितियों में किया जाएगा अतः इन कौशलों का मूल्यांकन ऐसे प्रॉजेक्टों और खेलों के द्वारा किया जाना चाहिए जो कि जीवन से जुड़ी परिस्थितियों के अनुरूप हों, न कि तनावपूर्ण परीक्षाओं के द्वारा। चूँकि गणित अक्सर अपने से ही और विकसित होती जाती है अतः अवधारणाओं को फिर से देखा जाना चाहिए पर ऐसा पुराने तरीकों के बजाय सृजनात्मक तरीकों से किया जाना चाहिए। पूरा पाठ्यक्रम इस दर्शन से भरा हुआ होना चाहिए कि गणित ‘नियमित संरचनाओं की पहचान का विज्ञान’ है। हमें इस बात का भी खास ख्याल रखना जरूरी है कि संरचना की पहचान का आकलन किस तरह होता है। मैंने ऐसे कई छात्र देखे हैं जो पारम्परिक पाठ्यपुस्तकीय गणित में अच्छे प्रतीत नहीं होते पर उनकी त्रिआयामी आकाश की समझ बहुत गहरी होती है और वे संरचनाओं को पहचानने में तथा तार्किक पहेलियों को सुलझाने में काफी दक्ष होते हैं। बच्चों को अर्थपूर्ण सवालों को हल करने का पर्याप्त अनुभव होना चाहिए और एक अन्तर्दृष्टि पाने के रोमांच का अनुभव भी मिलना चाहिए। इन सब जरूरतों को पूरा करने वाली पहले से तैयार कोई भी सामग्री बाजार में उपलब्ध नहीं है। जैसा कि मैंने पहले कहा है यह तुरन्त ही जरूरी है कि हम अलग से संसाधनों को निर्धारित करके इस तरह की सामग्री की रचना करें, या कम से कम सुसंगत ढंग से संग्रहीत करें, और शिक्षकों को प्रशिक्षित करें ताकि वे उसका और बेहतर ढंग से इस्तेमाल कर सकें।
कक्षा के स्तर पर यह बेहद जरूरी है कि शिक्षक ‘वाकई में सीखने’ का वातावरण पैदा करे। कक्षा को ऐसी जगह बनाने के लिए शिक्षक और छात्रों के बीच विश्वास और प्रेम का सम्बन्ध होना चाहिए। शिक्षक को भी गणित करने में बहुत आनन्‍द आना चाहिए तभी उसके छात्र प्रेरित महसूस करेंगे। इससे भी ज्यादा जरूरी है कि उसे बच्चों की इस बात को समझने में मदद करना चाहिए कि उनके डर क्या हैं और सीखने के प्रति उनका विरोधी रुख क्यों है। उन्हें इस काबिल बनाना चाहिए कि वे अपनी खुद की पढ़ाई की जिम्मेदारी ले सकें। सेन्‍टर फॉर लर्निंग में शिक्षा के बीस सालों के अनुभव ने हमें यह सिखाया है कि ये सब सिर्फ रूमानी ख्वाब नहीं हैं बल्कि बहुत वास्तविक सम्भावनाओं के दायरे में आते हैं।
Junaid Sir 9708545609

No comments:

Post a Comment